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________________ सम्यक्त्व महिमा २६७ करते हैं। और उपासको की श्रद्धा बिगाड कर उन्हे धर्म से विमुख बनाते हैं । ऐसे ही लोगो का परिचय देते हुए सूत्रकृताग १-१३-३ मे गणधर महाराज ने फरमाया है किविसोहियं ते अणुकाहयं ते, जे आतभावेण वियागरेज्जा। अट्ठाणिए होइ बहूगुणाणं, जे णाणसंकाइ भुसं वदेज्जा ॥ जो निर्दोष वाणी को विपरीत कहते हैं, उसकी मनचाही ध्याख्या करते हैं और वीतराग के वचनो मे शका करके झूठ बोलते हैं, वे उत्तम गुणो से वंचित रहते है। ऐसे लोगो से सावधान करते हुए विशेषावश्यक में प्राचार्यवर ने बताया कि"सवण्णुप्पामण्णा दोसा हु न संति जिणमए केई । जं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हवेज्जा ॥१४६६॥ __ -सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु के द्वारा प्रवर्तित होने से, श्री जिनधर्म मे किंचित् मात्र भी दोष नही है । यह धर्म सर्वथा शुद्ध, पूर्णरूप से सत्य और उपादेय है। किंतु अनुपयोगी गुरुप्रो के कथन से अथवा अयोग्य शिष्यो से, जिनशासन मे दोष उत्पन्न होते हैं । यह सारा दोष उन दूषित व्यक्तियो का हैजो अपने दोषो से जिनमत को दूषित करते हैं। इसलिए व्यक्तियो के दोष को देखकर, धर्म को दूषित नही मानना चाहिए। इस प्रकार दूषित श्रद्धा वालो से बचकर, सम्यगश्रद्धान को दढीभूत करने का ही प्रयत्न करना चाहिए । सम्यक्त्व को दृढीभूत करने के लिए शिक्षा देते हुए प्राचार्य कहते है कि
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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