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________________ २७० सम्यक्त्व विमर्श किसी भी व्यक्ति को यह कहना तो सहज है कि-'तुम प्रात्मस्थ हो जाओ, या ' मैं आत्मस्थ हूँ", " मैने प्रात्मा को देख लिया, जान लिया, आत्म-दर्शन कर लिया" आदि, किन्तु घेह सब वाणीविलास मात्र है। सक्रिय-साधना, आत्मस्थिरता की अमोघ विधि है । निम्न उदाहरण इस बात को स्पष्ट करेगा। एक बच्चा पढने बैठता है। शिक्षक 'अ' या 'क' प्रक्षर लिखकर उसे लिखना सिखाता है और अक्षरो की पहिचान करवाता है । शिक्षक के पास मे बैठा उसका मित्र, शिक्षक को टोकते हुए कहता है;-- - "मित्र ! तुम इस बच्चे को व्यर्थ ही क्यो सताते हो? प्ररे पहले इसे यह तो बताओ कि यह 'अ' क्या चीज है, किस काम आता है, इसके कितने रूप बनते हैं, कितने शब्द बनते है, इसका लोप किस प्रकार होता है। इस प्रकार 'अ' का स्वरूप तो बताया ही नही और सिखाने बैठ गए। इससे क्या लाभ होगा?" मित्र की बात सुनकर शिक्षक कहता है, --"भाई । तुम होश मे हो क्या ? पढाई का तरीका क्या है, यह सभी पढे-लिखे व्यक्ति जानते हैं । तुम और हम इसी तरह पढे है । यही विधि ठीक है। शिक्षा के द्वार में प्रवेश करनेवाले बालक के सामने, आपके विचारानुसार बातें रख दी जाय, तो वह कुछ भी नही समझ सकेगा और प्रचलित पद्धति के अनुसार अक्षरो की पहिचान होने के बाद उसे जब शब्द
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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