SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में आत्म-लक्षी विधान २६३ होकर आत्म-रक्षक होजाय । (उत्तरा. २-१५) (२३) “चरेज्जत्तगवेसए"-आत्म-गवेषक हो कर सयम मे विचरे। (उत्तरा. २-१७) (२४) "तेगिच्छं णाभिणंदिज्जा, संचिक्खत्तगवेसए"-प्रात्म-गवेषक मुनि, चिकित्सा-रोग का उपचार करने की इच्छा भी नही करे, किंतु शान्तिपूर्वक सहन करे। (उत्तरा. २-३३) (२५) “आयाणुरक्खी चरेऽप्पमत्तो"- आत्मरक्षक मुनि, अप्रमत्त होकर विचरे। (उत्तरा. ४-१०) ६) "नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा"-काम भोग और स्त्रियो से परिचय, ये आत्म-गवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष के समान है। (उत्तरा. १६-१३) (२७) "वीरा जे अत्तपण्णेसी"- वीर वही है ___ जो प्रात्म-प्रज्ञा को प्राप्त हैं। (सूय. १-६-३३) (२८) “एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा"-मुनि एकत्व भावना करे। (सूय १-१०-१२) (२६) “तिविहेण वि पाण माहणे, आयहिए अणियाण संवुडे"-प्राणियो की हिंसा नही करे और संवरवान् बनकर आत्म-हित साधे । (सूय १-२-३--२१) (३०) कई वेशधारी, गुप्त रूपसे पाप करते हुए, दूसरों के सामने प्रात्मार्थीपन का ढोग करते हैं । उस ढोग के भुलावे मे आकर लोग कहते हैं कि--यह मुनि आत्मार्थी है.-"आयय
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy