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________________ आगमों में आत्म-लक्षी विधान २६१ प्राश्रव त्यागी और आत्मवाद को प्राप्त करता है, वह निग्रंथ है । ( सूय. १-१६ ) (१२) भिक्षु वह है जो - " उवट्ठिए ठिअप्पा " - सावधान होकर श्रात्म-स्थित होवे । ( सूय. १-१६) “चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू " -प्रसंयम का त्याग कर और स्नेह रहित होकर, जो आत्मा मे स्थिर रहता है, वह भिक्षु है । ( दशवै १० - १७ ) णिच्चमायगुत्ते " - सदा श्रात्म - गुप्त रहे । " ( उत्तरा १५- ३ ) " आयगवेसएस भिक्खू " - जो श्रात्म- गवेषक है, ( उत्तरा १५-५ ) (१३) " अहम्मे अत्तपण्णहा.... पावसमणे ति वह भिक्षु है । वुच्चई । " आत्म- प्रज्ञा की हानि करने वाला अधर्मी, पाप श्रमण है ( उत्तरा १७ - १२ ) (१४) " विरए आयहिए पहाणवं " - भोगो से विरत, श्रात्महित में तत्पर और संयम में रहे । ( उत्तरा . २१-२१ ) (१५) समाधि कब प्राप्त होती है, - " आयट्ठीणं आयहियाणं आयजोगीणं आयपरक्कमाणं.... दसचित्तसमाहि ठाणाई असमुप्पण्णपुव्वाइं समुप्पज्जेज्जा ।"
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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