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________________ १० सम्यक्त्व विमर्श NAVANANA करना । आत्मा का परम अर्थ 'मोक्ष' प्राप्ति का है । मोक्ष (सभी प्रकार की प्राधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त) और अखण्ड अनुपम, अविनश्वर आत्मानन्द की प्राप्ति । इस परमार्थ मे प्रीति (सवेग) वढाते रहना, हृदय मे उस परम विशुद्ध दशा के प्रति आदर भाव रहे-बढता रहे । वाणी से परमार्थ की प्रशसा एवं स्तुति हो । मोक्ष, मोक्ष प्राप्त परम विशुद्ध सिद्धात्मा और प्रमाद कषायादि चतुर्गति परिभ्रमणरूप ससार से मुक्त वीतराग जिनेश्वर (भाषक सिद्धो) के प्रति दृढ श्रद्धा पूर्वक कीर्तन करते रहना चाहिए । परमार्थ के दाता जिनेश्वर भगवान है। अतएव उनकी स्तुति कीर्तन और स्तवना भी परमार्थ संस्तव है। हमे परमार्थ का ज्ञान जिनेश्वर भगवतो से हुप्रा है। ऐसे परमार्थ के दाता की स्तुति करने से हमारी आत्मा मे भी वैसे गुणो का विकास होता है । यदि हमे परमार्थ सस्तव करना है, तो पहले परमार्थ को समझना होगा। अाजकल परमार्थ के नाम से कई वस्तुएँ चल रही है । नाम तो 'परमार्थ स्तुति' का दिया जाता है, परंतु होती है स्वार्थ स्तुति । संसार त्यागी, निग्रंथनाथ भगवान् से हम धन मांगते हैं, पुत्र मांगते हैं, कुटुम्ब, उच्चपद, निरोगता, प्रादि अनेक वस्तुएँ माँगते हैं। उनकी परम वीतराग अवस्था का ध्यान नही करके बाह्य वैभव, सुन्दरता तथा अतिशयो मे उलझ जाते है और उन्ही का प्रादर करके अपने को परमार्य सस्तवी होना मान लेते है। उनकी वाल क्रीड़ा का वर्णन गाकर, हालरिया ललकार कर जिनभक्ति हो जाना मानते हैं। एक कवि बडे मोहक ढग से त्रिशला महा
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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