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________________ सम्यक्त्व विमर्श ऊपर उठना चाहता है, तो सहारा तो उसे उसी मोह रूपी रस्सी का लेना पडेगा, परंतु इस समय उसकी दृष्टि नीची नही होकर ऊँची रहेगी। वह उर्ध्वमुखी होगा । उसका पाप से स्नेह नही होकर धर्म से प्रेम होगा, देव गुरु की भक्ति होगी । विषयासक्ति का स्थान अब त्यागानुवृत्ति ने ले लिया है । विषयानुराग का स्थान धर्मानुराग - सवेग रग ने लिया है। यह प्रशस्त मोह का अवलम्बन उसे कूएँ से निकालकर उस धरातल पर ले आयगा, जहा वह पहुँचना चाहता है । फिर वह स्वावलम्बी बन जायगा । प्रप्रशस्त परावलम्बन से पतन हुआ था - कूएँ मे पडा था, अब प्रशस्त परावलम्बन से ऊँचा उठेगा । अत्र २५४ www लक्ष्य मे है निश्चय - स्वयंभू बन जाने की दृष्टि, और श्राचरण में है व्यवहार - लक्ष्य की ओर बढने की क्रिया । इन दोनो के सुमेल से ही जीव, आत्मा से परमात्मा बनता है । कूएँ मे पडा हुआ जीव, पहले बाहर निकलने का ध्येय बनाता है और फिर रस्मी पकडकर उसके सहारे से ऊपर चढने की क्रिया करता है | जब वह क्रूएँ के किनारे पर आ जाता है, तो रस्सी का अवलम्बन उसके लिए व्यर्थ हो जाता है । किंतु जब तक वह ध्येय से थोडा भी दूर रहता है, तब तक वह रस्सी के सहारे को छोड़ता नही है । प्रथम गुणस्थान में जीव, अधोमुखी होता है । यदि वह उर्ध्वमुखी होना चाहता है, तो भी मार्ग का सम्यग्ज्ञान एवं प्रतीति नही होने से वह कुएँ से बाहर नही निकल सकता और इधर उधर ही भटकता रहता है । जब उसे मार्ग का वास्तविक
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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