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________________ श्रद्धालुओं का परम आधार २३१ रहस्य प्रकट किये कि जिन्हे दुनिया का दूसरा कोई भी देव नही जान सका । अहो | मैं कितना भाग्यशाली हू । आज मुझे मेरा तारक मिल गया। मैं निहाल हो गया। संसार की समस्त संपत्ति भुझे मिल गई।" जो वीतराग एवं सर्वज्ञ हो, वही सच्चा मार्ग-दर्शक हो सकता है । तत्त्वो का वास्तविक स्वरूप और आत्मोत्थान की उत्तम विधि वही बता सकता है । वह दुनियाँ के दूसरे देवों की तरह. रुष्ठ और तुप्ठ नही होता । वह प्रत्येक प्रात्मा मे परमात्म-सत्ता स्वीकार करता है। वह किसी एक ईश्वर को जगत् का नियामक स्वीकार नहीं करता। उसके तत्त्व-ज्ञान मे अनन्त ईश्वरो का अस्तित्व है और सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा कोई भी आत्मा, परमात्मा बन सकता है-ऐसा उसका उद्घोष है। उसके मार्ग मे छोटे बडे और सूक्ष्म प्राणियो तक की अहिंसा का अद्वितीय विवेक है। आत्म-शुद्धि का क्रम तथा कर्म-निर्जरा का जैसी स्वरूप, जिनेश्वर के धर्म में है, वैसा अन्यत्र कहा है ? वर्तमान मे, उस विश्वोत्तम द्वारा सुवासित वातावरण मे रहकर भी जो जीव, उसको नही पहिचान सकते और दूसरे रागी द्वेषी तथा अल्पज्ञो के चक्कर में पडकर, उस परमवीतरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा को, असर्वज्ञ एवं रागी बताते हैं, उसका महत्व गिराकर उसे निम्न-कोटि का बताते है, वे सचमुच जिन. धर्म के विरोधी हैं। भव्य-प्राणियो को मिथ्यात्व मे भटकाने वाले है और हैं मोक्षमार्ग के प्रत्यनीक । ऐसे व्यक्तियो के हाथ में यदि नेतृत्व प्रा जाय, तो वे अपने कुकृत्यो से इस उत्तमोत्तम मार्ग
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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