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________________ २२६ सम्यक्त्व विमर्श इसकी प्राप्ति, रक्षण और सवर्धन मे सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए और आगे बढकर सम्यगज्ञान तथा चारित्र वृद्धि का प्रयत्न करना चाहिए। चारित्र, केवल इस भव का ही साथी रहता है। भवान्तर मे जाते समय चारित्र साथ नहीं जाता, मोक्ष पाने वाले का चारित्र भी यही छूट जाता है, किंतु दर्शन तो भवोभव का साथी है । यदि आत्मा उदयभाव के वश होकर इसे नहीं छोडे, तो यह भवान्तर मे भी साथ जाता है, यहा तक कि मुक्ति मे भी यह साथ रहता है। उपरोक्त कथन का आशय, चारित्र के महत्व को गिराने का नही है, और यह भी सत्य है कि यदि विज्ञान-भूमिका प्राप्त होने के बाद प्रत्याख्यान-भूमिका नही आवे और चारित्र को प्राप्त नही करे, तो निश्चय ही वह सम्यक्त्व-रत्न को गवाकर मिथ्यात्व मे गिर जाता है । यो सम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागरोपम से कुछ अधिक बताई है, लेकिन विचार करते यह लगता है कि ये ६६ सागरोपम भी चौथे गुणस्थान में नही बीतते हैं। बीच मे प्रत्याख्यान-भूमिका आती है, तब ६६ सागरोपम तक सम्यक्त्व रह सकती है। श्रीमद् सागरानन्दसूरिजी तो लिख गये कि-'के तो पागल वध, के राजी नामुं प्राप,' प्रर्थात् सम्यग्दर्शन रूप चौथे गुणस्थान से आगे बढकर प्रत्याख्यान की भूमिका मे आने पर ही सम्यग्दर्शन, ६६ सागरोपम जाजेरा रह सकता है और मुक्ति दिला सकता है । यदि प्रत्याख्यान-भूमिका मे नही आवे, तो पीछे हटकर मिथ्यात्व मे जाना
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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