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________________ २०८ सम्यक्त्व विमर्श एकात निश्चयवाद भी मिथ्या है और एकात व्यवहारवाद भी मिथ्या है। परम विशुद्ध सिद्धात्मा ही निश्चय स्वरूप है और वही प्रक्रिय-निष्कम्प एवं स्थिर है। उस अवस्था के पूर्व शैलेशीकरण के अतिरिक्त प्रात्मा कम्पनशील रहता है। यह सकम्प अवस्था, क्रिया से सर्वथा वंचित नहीं है। जब तक शरीर संबध है, तब तक क्रिया होती है, इसलिये ससारी आत्मा को प्रक्रिय मानना मिथ्या है । निश्चय का सिद्धात, निश्चय दशा सम्पन्न सिद्धात्मा पर ही पूर्ण रूप से घटित होता है, संसार व्यवहार (शरीर इन्द्रिय आदि) युक्त जीव पर पूर्ण घटित नही होता । संसारी जीवो के लिये प्रक्रियावाद का सिद्धात अहितकर होता है। इससे वे आत्म-शुद्धि जन्य क्रिया से वंचित रह जाते हैं और कर्म-बन्धन ही बढ़ाते रहते हैं। व्यवहार स्थित आत्मा के लिये निश्चय के ध्येय सहित व्यवहार धर्म ही उपकारी है। इसका निषेध करना मिथ्यात्व है। अजन विचारधारा मे प्रक्रियावादी अनेक मत हैं। उनमे अद्वैतवादी भी है। वे विश्वभर मे केवल एक ही आत्मा मानते है । उनका कहना है कि-"जिस प्रकार पानी से भरे हुए हजारो लाखो घडो मे एक ही चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता है और वह सब मे भिन्न-भिन्न दिखाई देता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न शरीरो मे आत्मा भी केवल एक ही है। पृथ्वी, जल, तेज आदि महाभूत तथा सारा संसार एक आत्मा के ही विभिन्न रूप है और यह सारा विस्तार भी उसी का है। हमे जो भिन्नता और विविधता दिखाई देती है, वह भ्रम ही है । जिस प्रकार अन्धेरे
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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