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________________ लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व १६६ आकर्षित किया। सारा विश्व, जैनधर्म का उपासक बन जाय, यह तो असभव है । इसके लिए विश्व के अनुकूल बनने-लौकिक मिथ्यात्व का सेवन करने की आवश्यकता हुई । क्योकि लोक के अनुकल बने बिना, लोक व्यापी होना आकाश-कुमुमवत् कोरी कल्पना मात्र ही रहती है । जिस प्रकार सोना, हीरा, मोती आदि मूल्यवान वस्तुएँ, सर्वसाधारण के हाथो मे पहुचने योग्य तभी बनती है, जब कि वे अपना स्थान, अपना मूल्य और अपना महत्व भुलाकर, पीतल या नकली सोना, नकली हीरा और कल्चर मोती बनजाय । यदि सोना अपने आप मे विशुद्ध रहे, अपना महत्त्व नही छोडे, मूल्य नही घटावे, तो वह विश्व व्यापक (अरबो मनुष्यो के लिए सुलभ) नही हो सकता । ग्राजकल मनिहारो के यहाँ दो दो और चार चार पैसे मे हीरे की अंगठी मिलती है। चार छ आने मे सोने के फेसी-मोहक हार मिलते हैं। इसी प्रकार सच्चे मोतियो को भी शरमावे वैसे मोतियो की मालाएँ कुछ पैसो मे ही मिलती है, और इनसे सर्वसाधारण जनता, स्वर्ण, रत्न तथा मुक्ता मण्डित आभूषणो का आनन्द लेती हुई अपनी इच्छा पूर्ण करती है । इसी प्रकार जैनधर्म भी अपना असली और वास्तविक रूप छोडकर, अपना निर्वाण मार्ग छोड़कर और असली से नकली बनकर ही विश्व-व्यापक हो सकता है । जहा लौकिक और लोकोत्तर का कोई भेद ही नही हो। जैनधर्म को विश्व-व्यापक बनाने के लिए, वैसे लोगों को अनेकान्त का बहुत बड़ा सहारा मिल गया है। वे कहते हैं
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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