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________________ १८० सम्यक्त्व विमर्श स्थानकवासी आदि सम्प्रदायो के भी आपस मे शास्त्र-भेद तथा मान्यता-भेद चल रहा है और नये नये भेद खड़े हो रहे हैं। प्रागमो के पाठ-भेद भी बहुत है और चाहकर परिवर्तन भी किए हैं, तब 'पुस्तक मे लिखा वह सभी जिनेश्वर प्रणीत ही है'ऐसा कैसे विश्वास किया जाय ? प्रश्न उचित है । अपने शास्त्रो को भगवद्-कथित एव प्रामाणिक सभी मानते हैं, किंतु इनके परखने की कसौटी तो जैनियो के पास है ही । अजैन शास्त्रो की परीक्षा तो जैनी सरलता से कर सकता है । वह जानता है कि जिन शास्त्रो एवं वचनो मे,भौतिक सुख-समृद्धि की कामना, तथा रागद्वेष वर्द्धक और आरंभ परिग्रह समर्थक विधान हो, जिनमे विषय कषाय पोषक विषय हो, वे रागियो और छद्मस्थो के बनाये हुए हैं और उनसे ससार-परिभ्रमण ही होता है । जिनागम, इन दूषणो से रहित है, इसलिए आदरणीय है । इस प्रकार जैनेतर शास्त्रो से जिगागमो की उत्तमता स्वत सिद्ध है। जैन सम्प्रदायो मे भी एक दूसरे की आगम सम्बन्धी मान्यता मे अन्तर है । श्वेताम्बर समाज के सर्व-सम्मत ३२ सूत्रो मे भी लेखको द्वारा अनजाने भी अशुद्धिये हो गई है और कही किसी ने चाहकर भी परिवर्तन किया है, जैसा कि 'सुत्तागमे' में परिवर्तन हुआ है। यह परिवर्तन आगमो के इतिहास की महान् कलंकित एवं अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण घटना है । इस भयकर दुसाहस ने बहुतो के मन मे यह सन्देह भर दिया है कि "पहले भी किसी ने मताग्रह से पाठ परिवर्तन की कुचेष्टा की होगी?"इस प्रकार साधारण जनता को अत्यधिक सन्देहशील बनाकर
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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