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________________ २ सम्यक्त्व विमर्श उसकी मूढतम दशा थी। जिस ओघ सज्ञा में लग गया, उसी मे लगा रहा । श्रवणेन्द्रिय प्राप्त होने पर श्रवण शक्ति उद्भूत हुई, तो मन के अभाव मे श्रवण भी व्यर्थ-सा रहा । जब मनन करने की शक्ति मिली, तो शरीर और इन्द्रियादि तथा कषायादि पर ही विमर्श होता रहा । कुछ प्रागे बढे, तो मिथ्यात्व (अतत्त्व) पर विमर्श होता रहा। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि के विषय मे ही विचारणा चलती रही। चारो गति मे खाना, पीना, संग्रह करना, काम-साधना और प्राप्त का सरक्षण तथा परिवर्द्धन-यही जीव की प्रवृत्ति रही । सिद्धात है कि चारो गति के जीव-१ आहार संज्ञा, २ भय संज्ञा, ३ मैथुन सज्ञा और ४ परिग्रह संज्ञा मे लगे हुए हैं । अर्थ और काम पुरुषार्थ मे ही जीव उलझा रहा और इसी विषय मे विचार-विमर्श करता रहा । जीव ने धर्म के विषय मे सोचा ही नही । यदि सोचा भी, तो धर्म के रूप मे प्रचलित अधर्म की भूल भुलैया मे पड़ गया। मिथ्यात्व को ग्रहण करके अभिग्रहित मिथ्यात्वी बन गया। कभी सम्यक्त्व रूपी सूर्य का प्रकाश पाया ही नहीं। जब अकाम निर्जरा से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की ६६ कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण अत्यत दीर्घ स्थिति के कर्म खपा दिये और मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण कर्म अवशेष रहे, तब भव्य जीव ने अपूर्वकरण करके सम्यक्त्व सूर्य का प्रथम दर्शन किया। मिथ्यात्व, ससार चक्र मे फंसाये , रखने वाला है और सम्यक्त्व, मोक्ष के परम सुख प्रदान कर प्रात्मा को परमात्मा बनाने वाला है । मिथ्यात्व मारक है और सम्यक्त्व रक्षक है ।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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