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________________ आभिनिवेशिक मिथ्यात्व ........................ मे फँस गए। यह एक मोहक मिथ्यात्व है। साधारण जनता, सरलता से इसके चक्कर में पड़ जाती है । श्रद्धा बिगाडने मे इस मिथ्यात्व का उपयोग बहुत हुआ है। जैन-जनता इस मिथ्यात्व से बचे, यही अभ्यर्थना है।। अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व के पात्र मे तटस्थ-वत्ति होती है। यदि उन्हे समझाने वाला मिले और श्री जिनधर्म की सर्वोच्चता उनके ध्यान मे आजाय, तो वे सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं। उनसे यह मिथ्यात्व छूटना सरल होता है, किंतु यदि उनमें प्राग्रह आजाय तो वे आभिग्रहिक मिथ्यात्व मे चले जाते है। कई जैन कहाने वालो के मानस तो ऐसे होते हैं कि जैनधर्म की विशेषता समझने पर भी लौकिकवाद से प्रभावित होकर, वे अपने आग्रह को दृढता से पकड रखते है। उनके समझने के लिए अनेक साधन होते हुए भी वे अपने प्राग्रह को नही छोडते और अपने सर्वधर्म-समभाव के सिद्धात के-जो उन्होने दूसरो से प्रभावित होकर अपनाया है, आग्रही बन जाते है । वे अभिनिवेशमिथ्यात्व मे ही चले जाते हैं, फिर उनका स्थान अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व में भी नही रहता। १३ श्राभिनिवशिक मिथ्यात्व अपने पक्ष की असत्यता समझकर भी जो उसे दृढता पूर्वक पकड रखे और उसे सत्य सिद्ध करने के लिए प्रपञ्च करे, वह 'अभिनिवेश मिथ्यात्व' का पात्र है। इस मिथ्यात्व मे पक्ष-व्यामोह की प्रधानता होती है।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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