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________________ अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व १६७ परीक्षा करके स्वीकार करने की बुद्धि, न तो आभिप्रहिक-मिथ्यात्वी मे होती है और न अनाभिग्रहिक-मिथ्यात्वी मे । इस दृष्टि से दोनो समान होते हुए भी दोनो मे एक खास भेद रहा हुआ है । पहला किसी एक मिथ्यापक्ष का समर्थक बन कर अन्य का खडन करता है, तब दूसरा किसी का विरोध नही करके सब को समान रखता है। दोनो मे यही खास - भेद है। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं कि जिनमे किसी एक पक्ष का आग्रह तो नहीं होता, किंतु वे गुण-दोष के परीक्षक भी नहीं होते । धर्म और अधर्म का भेद समझने में उनकी बुद्धि काम नही करती । वे संसार-मार्ग और मुक्ति मार्ग को समान मानते हैं । बन्ध और निर्जरा पुण्य और सवर, मुक्त और अमुक्त तथा साधु और असाधु, इन सब मे अभेद-बुद्धि रखते हैं। इस प्रकार की मान्यता, वे धर्म के विषय मे ही रखते हैं। सासारिक विषयो मे वे भेद मान सकते है । पत्थर और हीरा, लोहा और सोता, घोडा और गधा, इत्यादि वस्तुओ को वे समान रूप से नही मानते । अशुद्ध सोने का, शुद्ध सोने के समान पूरा मूल्य नही देते । वस्त्र को भी वे परीक्षा करके लेते हैं। वनस्पति-घृत का मूल्य, असली घृत के बराबर नही चुकाते और वेश्या को माता के समान वदनीय नही मानते, कितु धर्म के विषय मे उनकी विवेक-बुद्धि कुठित हो जाती है। वे सभी धर्मों को समानरूप से मान कर 'सर्वधर्म समभाव' का सिद्धात बना लेते हैं। राजनैतिक नेताओ को वे धर्म-नेता या
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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