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________________ १५८ सम्यक्त्व विमर्श धर्मात्माओ और सुसाधुओ पर प्रेम है और न पापात्माओ; नास्तिको और धर्म-घातको पर द्वष है। वे अपने निजानन्द मे रहे हुए हैं। उन्हे संसार मे अवतरण करने (पतित होने) की कोई आवश्यकता नही । संसार के सुख-दु ख अथवा धर्म-अधर्म से उनका कोई सरोकार नही । वे राग, द्वेष काया, कर्म, जन्म और मरण तथा उद्वर्तन और अपवर्तन-अवतरण से सर्वथा रहित है। इस प्रकार मानना सम्यक्त्व है और इसके विपरीत , श्रद्धान मिथ्यात्व है। जिन्हे मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व स्वीकार करना है, अथवा सम्कक्त्वी रहना है, उन्हे रागी, द्वेषी, अज्ञानी और आठ कर्मों के बन्धनो मे बधे हुए अमुक्त जीवो को मुक्त नहीं मानना होगा, उन्हे मुक्त के समान नहीं बतलाना होगा । जो ऐसे अमुक्त. अजैन आराध्यो को मुक्तेश्वर (जिनेश्वर) के समकक्ष मानते हैं और प्रचार करते है, वे स्वयं मिथ्यात्व को अपनाते हैं और मिथ्यात्व का प्रचार करके उपासको को भी मिथ्यात्वी बनाने का प्रयत्न करते हैं। सम्यग्दृष्टियो एवं सम्यग्ज्ञानी उपदेशको का कर्तव्य है कि उपासको की बिगाड़ी जाती हुई श्रद्धान को सुरक्षित रखने का यथाशक्य प्रयत्न करते रहे। १० मुक्त को अमुक्त मानना जो कर्म-बन्धनो और पर की संगति से सर्वथा मुक्त हो चके हैं, संसार का संयोगजन्य कोई भी सम्बन्ध जिनके शेष नही रहा, उन सिद्ध भगवन्तो को अमुक्त (बन्दी) मानना भी
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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