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________________ १५६ सम्यक्त्व विमर्श वह अपने से उच्च एव श्रेष्ठ किसी महाशक्ति की प्राराधना कर रहा है, और वह विस्मरणशील भी है, तभी जाप की संख्या का हिसाब रखने के लिए माला का उपयोग करता है । ऐसे साधक और भुलक्कड को सर्वेश्वर एव मुक्त मानना,किस प्रकार उचित है ? किसी महाज्ञानी और मुक्त कहलाने वाले को शिप्य ने पूछा कि 'भगवन् । यह लोक कैसा है ? जीव का स्वरूप कैसा है ? पुनर्जन्म है भी या नही, इत्यादि प्रश्नो का समाधान नही __ करके 'अव्याकृत' कहकर टाल दिया। जब वे खुद भी नही 'जान पाये, तो समाधान क्या करेगे और 'मै नही जानता, यह भी कैसे कहेगे ? यह भी पूछा गया कि 'इस देह को छोड़ने के बाद आप क्या होगे?" तो इसका उत्तर भी वही 'अव्याकृत। इससे मालूम होता है कि उनपर भी अज्ञान का प्रावरण छाया हुआ था । अहिंसा का उपदेश देते हुए भी उनके व उनके सघ के लिए पशु-हत्या कर भोजन करवाने वालो का न्योता मान लिया जाता था और वे मास भक्षण करते थे। जो मुक्त होने का मार्ग ही नही जानते हो, जिनके जीवन चरित्र और सिद्धात से राग, द्वेष, अज्ञान, अविरति, प्रमाद और कषाय स्पष्ट रूप से झलकते हो, ऐसे असम्यक् ससारसमापन्नक जीवो को मुक्त मानना कहा की समझदारी है ? मुक्त होने मे सब से पहले स्व और पर का ज्ञान होना अनिवार्य है। स्व-पर के भेद-ज्ञान के बाद, पर से छूटने का उपाय जानना भी अनिवार्य है । सामान्यतया
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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