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________________ साधु और जन-सेवा १५३ इस प्रकार निर्ग्रथो की प्रव्रज्या का ध्येय मोक्ष साधना है, जन-सेवा नही है । प्राचाराग १-४-१ मे लिखा कि__ "णो लोगस्सेसणं चरे," इस वाक्य से यह शिक्षा दी गई कि लोगो का (जनता का) अनुसरण नही करे । दशवकालिक ३ मे गृहस्थो की सेवा करना, साधु के लिए अनाचरणीय बताया है और निशीथसूत्र मे, गृहस्थो की सेवा का साधु के लिए प्रायश्चित्त विधान किया गया है। यदि आप पूर्वकाल के श्रमणो की चर्या का वर्णन पढे और विचार करे, तो स्पष्ट ज्ञात होगा कि वे जन-सम्पर्क से दूर ही रहते थे । वे सासारिक सयोग से मुक्त रहने वाले थे । यदि श्रमणो का ध्येय जन-सेवा का होता, तो उन्हे ससार त्यागने की आवश्यकता ही नही रहती, न जगलो में रहने की जरूरत थी और न रजोहरणादि उपकरण रखने की ही आवश्यकता रहती, अपितु जन-सेवक की भाति वे भी कुर्ता टोपी आदि पहनकर सफाई आदि और निर्माण, रोजी प्रबन्धादि करते रहते । रोगियो की सेवा और सासारिक भाषा, कलादि सिखाते रहते, किंतु निग्रंथ-चर्या मे आज भी यह नही है और पहले भी ऐसा कुछ भी नहीं था। इससे भी यह सिद्ध है कि जैन साधु जन-सेवक नही हैं । उनका उद्देश्य लोक सेवा का कभी भी नही रहा । वे जनता के सेव्य हैं, "नमो लोए सव्वसाहूणं, साहु मंगलं, साहूलोगुत्तमा, साहूसरणं पवज्जामि, इत्यादि आगमिक वाक्यो को जानने वाला, साधु को जनसेवक कहने का साहस नही कर सकता। इस प्रकार जो साधु "णिग्गंथं पावयणं पुरओकाओ
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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