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________________ असाधु को साधु मानना १४१ गृहस्थो से धन लेने की इच्छा रखते हैं । ज्ञान-कोष की वृद्धि के लिए धन का संग्रह करते है-कराते हैं। इन सब मे परस्पर भेद और विसवाद है । ये आपस मे नही मिलते हैं, सब अपनी अपनी प्रशंसा करके समाचारी का विरोध करते हैं। ये सभी नामधारी साधू, विशेष करके स्त्रियो को ही उपदेश देते हैं और स्वच्छन्द रूप से विचरते हैं । अपने भक्त के छोटे गुण को भी वे बहुत बडा (-राई सदृश गुण को पर्वत जितना बडा) करके दिखाते हैं और कई प्रकार के बहाने बनाकर अधिक उपकरण रखते हैं। लोगो के घर जाकर धर्मकथा कहते फिरते है। ये सभी 'अहमिन्द्र' अर्थात् सर्व सत्ता सम्पन्न हो गए है,किंतु गरज होने पर नम्र बन जाते है और गरज निकल जाने पर फिर ईर्षा करने लगते है । ये गहस्थो का बहमान करते है और गहस्थो को सयम के सखा ( मित्र ) कहते हैं । चदोवा और पूठिया (आसन के बैठने के स्थान के ऊपर व पीठ के पीछे बाँधने के जरी के वस्त्र) का संग्रह करते हैं । नांद की पावक मे भी वृद्धि करते रहते है।" आदि. अन्त मे श्री हरिभद्रसूरिजी लिखते हैं कि ये साधु नही, किंतु 'पेट भरो का झुंड है।' वे दुख के साथ कहते है कि "इस शिर-शूल की शिकायत किस के पास करे।" इस प्रकार १७१ गाथाओ द्वारा उस समय के साधु नामधारी प्रसाधुओ का वर्णन किया है। उन्होने बताया कि "यह असयती पूजा का दसवा आश्चर्य, दुभिक्ष दारिद्रय और दु ख का कारण है"। वास्तव मे उस समय असाधुओ को साधु मानने रूप
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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