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________________ १२६ सम्यक्त्व विमर्श विनष्ट हो जाती है । शरीर से भिन्न कोई आत्मा है ही नही । इस प्रकार की मान्यता 'तज्जीवतच्छरीरवादी' मत की है। भूतवादी पाँचभूतो को ही सब कुछ मानता है । इस प्रकार जीव को ही सब कुछ मान कर आत्मा को भिन्न तत्त्व नही मानना या प्रजीव को ही जीव मानना मिथ्यात्व है । इस प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रसित आत्मा, यदि सदाचार का पालन करती है, तो वह भी केवल ससार मे शाति, सभ्यता, न्याय, नीति और सहयोग कायम रहे, इसी उद्देश्य से । कुछ लोग भद्रपरिणामी, प्रकृति के शात, कोमल और सरल होते है । वे विनीत और नम्र होकर सब को प्रणाम करते हैं । चाहे की हो या कुत्ता, बिल्ली हो या चूहा, अथवा पत्थर ईंट और लकडी ही हो, सबको प्रणाम करना उनका व्रत होता है । वे सद्गुणी दुर्गुणी का भेद नही करते । माता को भी प्रणाम और वेश्या को भी प्रणाम, महात्मा को भी नमस्कार और कसाई को भी नमस्कार । इस प्रकार सबके प्रति शुभ भाव रखनेवाले तामली तापस की तरह ( भगवती ३ - ३ ) भक्तिमार्गी होते हैं । उनके परिणाम शुभ होते हुए भी उन्हे विवेकशील नही कह सकते और उनकी गणना भी 'विनयवादी - मिथ्यादृष्टि' मे होती है । उनकी भद्रपरिणति और सरलता, उन्हे शुभ कर्म के उपार्जन में सहायक हो सकती है और उससे वे दैविक सुख प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि विशुद्ध नही हो सकती । जहा खलि और गुड समान हो, प्रजीव, पत्थर, लकड़ी और मृतिका मे भी जीव बुद्धि (देव बुद्धि ) हो और महात्मा तथा
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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