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________________ अजीव को जीव मानना १२३ साधवेशधारी अपने व्याख्यानो और लेखो में इस सुमार्ग के प्रति अरुचि उत्पन्न कर, नगद धर्म (लोक सेवा रूप संसार मार्ग) की प्रशंसा करते हैं। वे सन्मार्ग का लोप करके महामोहनीय कर्म का बंध करते हैं। वास्तव मे एक-मात्र जिनेश्वरो का मार्ग ही सुमार्ग है। श्री उत्तराध्ययन सूत्र अ० २३ मे गणधर भगवान् श्री गौतमस्वामीजी फरमाते हैं कि "कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्पग्गपट्टिया। सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे।" उपरोक्त प्रागम मे उन्मार्ग और सन्मार्ग का स्पष्ट रूप से खुलासा कर दिया गया है । सम्यग्दृष्टि जीवो को इस पर पूर्ण विश्वास करके, उन्मार्ग से दूर रहकर, सन्मार्ग की श्रद्धा करनी चाहिये। इसीसे वे मिथ्यात्व से वंचित रह सकेगे । ५ अजीव को जीव मानना धर्म, अधर्म और सुमार्ग कुमार्ग का भेद जानकर, धर्म और समार्ग की श्रद्धा हो जाने के बाद, जीव अजीव का सही ज्ञान होना भी आवश्यक है। संसार में मुख्यत. दो ही तत्त्व हैं१ जीव और २ अजीव । इन दो तत्त्वो का विस्तार ही नव तत्त्व है । छ. द्रव्यो मे जीवास्तिकाय के अतिरिक्त पाँच द्रव्य अजीव ही हैं । इन पांचो मे से चार तो प्ररूपी-अदृश्य हैं, इनमें दृश्यता के गुण-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श नही है और पुद्गलास्तिकाय रूपी है-दिखाई देने वाला है । उसमे शब्द,
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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