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________________ अधर्म को धर्म मानना १०६ अज्ञान कष्ट कूट कूट कर भरा है, ऐसे अधर्म को धर्म मानना पहला मिथ्यात्व है । जो अधर्म, ससार मे भटकाने वाला है, अज्ञान को बढाने वाला है, लोहे के समान त्याज्य है। उसे रत्न के समान सुखदायक धर्म मानना, भयानक भूल है । यदि मनुष्य अपनी बुद्धि का सदुपयोग करके अधर्म को समझ ले और उसे धर्म रूप नही माने, तो यह उसकी बडी भारी सफलता है। हिंसा, मृषा, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और क्रोधादि १८ पाप हैं । भले ही ये अपने खुद के लिये किये जायें, या दूसरो के लिये अथवा धर्म के नाम पर ही, पाप तो सदैव पाप ही रहेगा । पुण्य, शुभ बन्ध का कारण होगा । आस्रव अपने आप मे आस्रव ही है, वह सवर नही हो सकता । बन्ध तत्त्व, मोक्ष का विरोधी ही है । इस प्रकार प्रात्मा से सम्बन्ध रखनेवाली प्रत्येक वस्तु की यथार्थ जानकारी होने पर ही मिथ्यात्व छूट सकता है, अन्यथा नही। यदि कोई सोने को पीतल मानकर लेले, तो यह प्रत्यक्ष मे गलत है और इससे उसको हानि उठानी पडती है, फिर भी इतने मात्र से वह मिथ्यादृष्टि नहीं है । सम्यग्दृष्टि भी इस प्रकार ठगा जा सकता है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का संबध आत्मा के लिये हिताहितकारी विषयो से है । पीतल को सोना समझ कर लेने वाला तो एक बार ठगाता है और वह उतनी बडी हानि नही है, जितनी कि अधर्म को धर्म मानकर अपनाने मे है । विष को अमृत मानकर पीने से भी अधिक भयानक है-अधर्म को धर्म मानकर स्वीकार करना । अतएव अधर्म की
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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