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________________ सादि सपर्यवसित मिथ्यात्व १०७ मिथ्यात्व से निकाल ही लेते हैं । इस प्रकार यह पतन अस्थायी होता है। इस भेद वाले सभी प्राणी अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस प्रकार उत्थान और पतन एक दो या तीन बार ही नही, लेकिन हजारो बार हो सकता है। एक भंग और रहता है, जिसका नाम 'सादि-अपर्यवसित' है, लेकिन यह भंग मिथ्यात्व के लिए लागू नही होता । 'मिथ्यात्व की आदि हो और अन्त नही हो'-ऐसा कोई भेद नही है।' हाँ, मुक्त जीवो के लिए यह भेद लागू हो सकता है कि-'उनकी कर्म-मुक्ति-संसार मुक्ति' सादिअपर्यवसित है और क्षायिक सम्यक्त्व भी सादि-अपर्यवसित होती है । मिथ्यात्व के विषय मे यह भग शून्य ही है। जिस आत्मा के असंख्य प्रदेशात्मक क्षेत्र मे मिथ्यात्वरूपी विष रमा हुआ होता है, उसमे विरति (त्याग, प्रत्याख्यान) अप्रमत्तता और कषाय रहितता (वीतरागता) तथा सर्वज्ञता रूपी गुण उत्पन्न नही होते । इन सब गुणो का उत्पत्ति स्थान सम्यक्त्व ही है । सम्यक्त्व, आत्मरूपी क्षेत्र को शुद्ध करके उसे गुणोत्पत्ति के योग्य बना देती है फिर विरति आदि गुणो से पवित्र होती हुई आत्मा, परमात्मरूप बन जाती है। जिन भव्यात्माओ मे सम्यक्त्व गुण बसा हुआ है और जिन्हे सम्यक्त्व से अत्यधिक प्रीति है, तथा जो सम्यक्त्व को सुरक्षित रखना चाहते हैं, उनका प्रथम कर्त्तव्य है कि वे मिथ्यात्व से अपने को बचाये रहे, दूर ही रहे । मिथ्यात्व से बचने । के भेदो को समझना सर्व प्रथम आवश्यक है। अतएव यहाँ
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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