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________________ अनादि अपर्यवसित मिथ्यात्व 004 D १०५ १ अनादि पर्यवसित मिथ्यात्व 1 सदाकाल, शाश्वत रूप से जम कर रहने वाला, जो कभी पृथक् हो ही नही सकता । इस प्रकार के मिथ्यात्व के धनी को 'अभव्य' कहते हैं | अभव्य सदा भव्य ( मुक्ति पाने के प्रयोग्य) अर्थात् मिथ्या दृष्टि ही रहता है । प्राचार्यो ने यही दशा जाति-भव्य की भी मानी है । प्रभव्य, उस वंध्या स्त्री जैसा होता है कि जिसे पुरुष का योग प्राप्त होने पर भी पुत्र की प्राप्ति नही होती - हो ही नही सकती । और प्राचार्यों के श्रनुसार जाति भव्य, उस युवती विधवा जैसा है कि जिसमे पुत्रोत्पत्ति की योग्यता होते हुए भी, पुरुष का योग नही मिल सकता । इसलिये वह भी पुत्र प्राप्ति से वंचित रहती है । पुत्र रूप फल से तो वंध्या मी वंचित रहती और विधवा भी, किंतु वंध्या तो अपनी योग्यता से वंचित रहती है और विधवा योग्यता होते हुए भी साधन का सुयोग नही मिलने से वंचित रहती है । इस प्रकार मोक्ष की अपेक्षा से तो अभव्य और जाति भव्य समान ही है, अन्तर है तो केवल योग्यता का । है २ अनादि सपर्यवसित मिथ्यात्व अनादिकाल से चले श्राते हुए मिथ्यात्व का अन्त होना । यह मिथ्यात्व, उन सभी प्राणियो को था, है और रहेगा, जो 'भवसिद्धिक' हैं। भूतकाल मे जिन अनन्त श्रात्माओ ने पहले * आगमों में जातिभव्य का भेद दिखाई नहीं दिया । भगवती सूत्र में सभी भव्यो को सिद्ध होने योग्य बतलाया है ।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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