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________________ (१०) होना था, किंतु हमारे समाज मे इस विपय मे कोई खास प्रयत्न नही हुमा । समकित के ६७ बोल और कुछ बोलो के सक्षिप्त प्रचार के सिवाय इस विपय मे विशेप विवेचन युक्त एक पुस्तक भी देखने मे नही आईं। न उपदेशो मे सम्यक्त्व के विषय मे श्रोताओ को विस्तार से समझाया गया। अतएव यह पुस्तक हमारे स्था० जैन समाज में अपने विषय की पहली ही है । उपयोगिता की दृष्टि से यह पुस्तक धामिक पाठयक्रम मे रखने योग्य है । किंतु परिस्थिति अनकल नही होने से एव समाज के कर्णधारो का रुख सर्वथा विपरीत होने के कारण उपेक्षित रहेगी। फिर भी धर्म-प्रेमी एवं परम्परा में श्रद्धा रखनेवाला वर्ग अवश्य ही इससे लाभान्वित होगा, इसमे सन्देह नहीं । 'सम्यक्त्व विमर्श' प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त करते हुए प्रकाशन व्यय दाता उदार महानुभावो मे सम्यग्दर्शन द्वारा जाहिर निवेदन किया गया, तो सुश्राविका श्रीमती पतास बाई, मातेश्वरी श्रीमान् सेठ मिलापचन्दजी सा बोहरा मंड्या (मारवाड मे पिसागण) निवासी की ओर से १५०० प्रतियो का व्यय देने की स्वीकृति प्राप्त होगई । मेरा विचार केवल एक हजार छापने का ही था, किंतु सेठ मिलापचदजी साहब के आग्रह से ५०० विशेप छापनी पड़ी। श्रीमती पतासवाई उदार हृदया सुश्राविका है। वे व्रत नियम और प्राचार का निष्ठापूर्वक पालन करती रही हैं। आपकी इच्छा धार्मिक साहित्य प्रकाशन करने के लिए सघ को एक मुश्त रकम प्रदान करने की है। अल्प मूल्य मे पागमोक्त साहित्य प्रचार करने के लिए आप अच्छी रकम प्रदान करने
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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