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________________ सम्पत्व विमर्श नही होता। क्योकि वे कुदर्शनी तो प्रारंभ से ही 'पर'-दूसरे कहलाते हैं। इसलिए उनपर पहले से विश्वास नही होता। व्यापन्न="श्रद्धाभ्रष्ट" की संगति का वर्जन तो मूल प्रतिज्ञा मे ही है। जो व्यापन्न बने हैं, वे प्राय 'परपाषड परिचय' से बने होते हैं । अतएव कुदर्शन-वर्जन रूप प्रतिज्ञा के अतिचार मे, 'परपाषड प्रशसा और परपाषंड परिचय का भी त्याग बताया है। इस दोहरे विधान से इनकी भयानकता सिद्ध हो जाती है । अतएव इस भयानक खतरे से हर समय बचे रहना चाहिए । हमने ऊपर जिन पडितो के मिथ्यात्व का उल्लेख किया, उसका समाधान भी कर देना जरूरी समझते है, जिससे पाठको को किसी प्रकार का भ्रम नही रहे । (१) सिद्ध भगवान् की स्थिति न तो फांसी पर लटके हुए मनुष्य जैसी है और न ओधे-मुह लटकने वाले चमगादड पक्षी जैसी है। मनुष्य फाँसी पर बरबस लटकाया जाता है अथवा अत्यत विवश होकर लटकता है । इससे उसे महान् दु.ख होता है। उसके और चमगादड के लटकने मे अन्तर है। चमगादड अपने जाति-स्वभाव से लटकता है । लटकने मे वह दुखानुभव नहीं करता, किंतु दूसरे पक्षियो के बैठने की तरह स्वाभाविक दशा का ही अनुभव करता होगा । जिस प्रकार सर्पादि का पेट के बल चलना (सरकना) और मेढक आदि का फुदकना स्वाभाविक है, उसी प्रकार चमगादड का लटकना स्वाभाविक है । आकाश मे मुक्त रूप से उडनेवाले पक्षी का उडना और जलाशयो मे तैरने वाले मत्स्यादि का तैरना स्वाभाविक है। फिर भी ये शरीर
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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