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________________ विचिकित्सा ५३ 'परोपकार-लोक-सेवा' ही धर्म है । संवर, निर्जरा की साधना मे उनका विश्वास ही नही । वे इसे व्यर्थ मानते हैं। उनकी दृष्टि मे ये सब निष्फल है, तभी तो वे कहते हैं कि-"जैन साध जितना जनता से लेते हैं, उतना देते भी हैं या नही ?" इस प्रकार वे अपने आहारादि का मोल करके बदले में उनसे सेवा लेने की भावना रखते है। कई लोग श्रमणो को गृहस्थो पर भारभत मानकर उनको देश के उपयोग मे आने की सलाह देते है। तात्पर्य यह है कि श्रमणो की साधना-संयम, तप, स्वाध्यायादि को वे निष्फल मानते हैं । विचिकित्सा तो फल मे होने वाले सन्देह को बतलाती है, परन्तु ऐसे लोगो मे तो सन्देह की सीमा तोड कर मिथ्यात्व धुस गया है । पंडित सुखलालजी, म. गांधीजी का प्रादर्श बता कर जैन श्रमणो को जीवन निर्वाह के लिए 'श्रम करने'-स्वावलम्बी बनने की सलाह देते हैं। उनके शिष्य पडित मालवणिया, भिक्षाचरी को"श्रमिको के रक्तपान के समान" बतलाते हैं। इस प्रकार कई तरीको से भोली जनता मे करणी के फल के प्रति सदेह घुसाया जाता है । जो साधु, संवर निर्जरा के पालक कहाते हुए भी-मारवाड के रेगिस्तान को हराभरा बनाने और महलो को झोपड़ी की बराबरी मे लाने की उत्सुकता व्यक्त करते हैं, उनमे संवर, निर्जरा की करणी मे विश्वास कहां? यदि विश्वास होता, तो उस उत्तम साधना के विपरीत प्रचार करते ? सन्देह रहने तक वह दोष कहा जाता है, किंतु जहाँ सन्देह आगे बढ कर विश्वास मे परिणत हो जाता है और खुले
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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