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________________ ६७ परोददातीति कुबुद्धि रेपा । पुराकृतं कर्म तदेव जुज्यते, शरीर कार्य खलुयत्त्वया कृतम् ॥५॥ अथ: - "सुख का और दुःख का नहीं है कोई दाता (देनेवाला); और कोई ईश्वरादिक, वा पुत्र, पिता, शत्रु मित्र का दिया हुआ सुख दुःख जोगता हूं, इति (ऐसे ) जो माने उसकी एताअशी कुबुद्धि (कुत्सितबुद्धि) दै. तो फिर कि सका दिया सुख दुःख जोगता है ? पुरा कृतम् अर्थात् पहिले किये हुए जो सचित कर्म हैं, ' तदेव ज्यते' अर्थात् तिसीका दिया हुआ सुख दुःख भोगता है. " शरीर कार्यम्' अर्थात् सूक्ष्म शरीर अन्तःकरण रूप स्थूल शरीर के निमित्त से अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जोगता है. ' खलु इति निश्चयेन (व) तेरे करके ( कृतम् ) किये हुए हैं. और ऐसे दी यूनानी हिक्मत की कि ताब में भी लिखा हुआ है, (अरबी में ) :
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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