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________________ 10 ३८ ॥ अथ गुरु शिष्य सम्बाद || शिष्य :- हे गुरो ! सुख-दुःख, जीवनमरण, सुकृत- दुष्कृत यादिक व्यवहारों का कर्त्ता जीव है वा कर्म, यद आप कृपापूर्वक मुके जली प्रकार से समऊा दीजिये. वेष, पु गुरू :- हे शिष्य ! कर्म दी है. शिष्यः--यद लो, अपना वस्त्र, वेष, स्तक इनको जलाञ्जलि देता हूं ! और प्रपने घर को जाता हूं ! गुरू :- किस कारण से उदासीन हुए हो ? शिष्यः - कारण क्या ? यदि व्याप कर्म ही को कर्त्ता कहते हो तो फिर हम लोगों को उपदेश किस लिये करते हो ? और ज्ञान शिक्षा क्यों देते हो कि, सुकृत (शुन कर्म करो और दुष्कृत [ खोट्टे कर्म ] मत करो ? क्यों कि जीव के तो कुछ व्यधीन ही नहीं दैः न जाने कर्म साधुपन करवावें, न जाने चोरी करवावें ! > 7
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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