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________________ १६८ब्राह्मण, वैष्णव, समाजी, व्यादिक हजार वा मेढ हजार के लगभग स्त्रिये वा पुरुष सजा में उपस्थित थे. प्रौर दिन के आठ बजे से दस बजे तक व्याख्यान होने के अनन्तर दयानन्दी पुरुषों में से, दो आदमी कुच्छ प्रार्थना करने के लिये आज्ञा मांगी. तदनन्तर हमने जी एक घण्टा और सजा में बैठना मंजूर किया. तब उन्हों में से एक जाईने सना में खड़े हो कर लैक्चर दिया, कि जैनच्यायजी श्रीमती पार्वतीजी ने दया सत्यादि का प्रत्युत्तम उपदेश किया, इसमें हम कुच्छ जी तर्क नहीं कर सकते हैं, परन्तु इनके 'रत्नसार, नामक ग्रंथ में लिखा है कि जैन मत के सिवाय और मतवालों से प्रप्रियाचरण करना, अर्थात् हतना चाहिये; जला देखो इनकी यह कैसी दया है ? तव कई एक सभासद परस्पर कोलाहल (बुबुमाट ) करने लगे. तब हमने कहा कि जाई ! इसको भी मन
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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