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________________ 4 १९३ देखो परस्पर विरोध ! द्वाय अफसोस! अप १ ते कथन का भी बंधन नहीं, कि दम पहिले तो क्या लिख चुके हैं, और अब क्या लिखते हैं? परन्तु क्या करें? मिथ्या के चरित्र ऐसे ही होते हैं ! जैनी:- मला, ईश्वर तो चेतन है और r सृष्टि जड है, तो चेतन ने जम कैसे बना दिये ? परमाणुओं को इकठ्ठा कर‍ प्रारियाः के सृष्टि बनाता है. जैनी: क्या, ईश्वर के तुम दाथ पांव मानते हो, जिनसे वद परमाणु इकट्ठे करता है? मारिया : ईश्वर के हाथ पांव कहांसे प्राये ? ईश्वर तो निराकार है. जैनी :- तो फिर परमाणु कादेसे इकट्ठे करता है? आरिया: अपनी इच्छा से. जैनी:- ओहो ! तो फिर तुमने सम्वत् १९८४ के बपे हुए "सत्यार्थ प्रकाश" के चौद -
SR No.010467
Book TitleSamyaktva Suryodaya Jain arthat Mithyatva Timir Nashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParvati Sati
PublisherKruparam Kotumal
Publication Year1905
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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