SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * उपोदघात के नित्यानंदपदप्रयाणसरणी श्रेयोविनिः सारिणी। संसाराणवतारणेकनरणी विश्वद्धिविस्तारिणी ॥ पुण्यांकरभरपरोहधरणी व्यामोहसंहारिणी। प्रीत्यैस्ताज्जिनतेऽखिलार्तिहरणी मतिर्मनोहारिणा ॥१॥ अनंत ज्ञानदर्शनमय श्रीसिद्ध परमात्मा को तथा चार रक्षेपायुक्त श्रीअरिहंत भगवंतको और शाश्वती अशाश्वती असंख्य ग्नप्रतिमाको त्रिकरण शुद्धिसे नमस्कार करके इस ग्रंथके प्रारंभ मालूम किया जाता है कि प्रथम प्रश्नोत्तरमें लिखे मूजिव ढूंढक अढाईसौ वर्ष से निकला है जिसमें अयापि पर्यंत कोई भी पक्ज्ञानवान् साधु अथवा श्रावक होया होवे ऐसे मालूम नहीं ता है, कहांसे होवे ? जैनशास्त्रसे विरुद्ध मतमें सम्यकज्ञान का संभवही नहींहै,उत्पत्ति समयमें इस मतकी कदापि कितनेक तक अच्छी स्थिति चली हो तो आश्चर्य नहीं परंतु जैसे इंद्र लकी वस्तुघनेकाल तक नहीं रहती है तैसे इस कल्पित मतका : वर्षसे दिन प्रतिदिन क्षय होता देखने में आता है, क्योंकि जानपनसे इस मतमें साधु अथवा श्रावक बने हुए घने प्राणी न शास्त्रके सच्चे रहस्य के ज्ञासा होते हैं तो जैसे सर्प कुंजको चला जाताहै ऐसेइस मतको त्याग देते हैं और जैनमत जो छमें शुद्धरीति देशकालानसार प्रवर्तताहै उसको अंगीकार
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy