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________________ में तो भातपाणा श्राविकारूप वावच्च नहीं; (१५) बाबत जेठमल भातपाणी तथा उपधि देनी तिसको ही वेयावच्च कहता है सो मिथ्या है। क्योंकि बाल, दुर्बल, वृद्ध, तपस्वी प्रमुख में तो भातपाणी का वेयावच्च संभव हो सक्ता है परंतु कुल, गण, और साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ, तथा चैत्य जो अरिहंत की प्रतिमा इनको भातपाणी देनेसे ही वेयावच्च नहीं; किंतु वेयावच्च के अन्य बहु प्रकार हैं। जैसे कुल, गण, संघ तथा अरिहंत की प्रतिमा इनका कोई अवर्णवाद बोले, इनकी हीलना तथा विराधना करे तिसको उपदेशादिक देके कुल गण प्रमुख की विराधना टाले और इनके (कुल गण प्रमुख के) प्रत्यनीकका अनेक प्रकारसे निवारण करे सो भी वेयावच्चमें ही शामिल है तैसे अन्य भी वेयावच्चके बहुत प्रकार हैं* ॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रमें हरिकेशी मुनिके अध्ययनमें लिखा है कि "जक्खाहु वेयावडियं करेति" मतलब श्रीहरिकेशीमुनि की वेयावच्च करने वाले यक्ष देवताने मुनिको उपसर्ग करने वाले ब्राह्मणोंके पुत्रों को जब मारा और ब्राह्मण हरिकेशी मुनि के समीप आकर क्षमा मांगने लगा तब श्रीहरिकेशी मुनिने कहा कि “मैंने कुछ नहीं किया है परंतु यक्षमेरी वेयावच्च करता है उससे तुमारे पुत्र मारे गये हैं।" देखो कि यक्ष ने हरिकेशी मुनिकी वेयावच्च किस रीतिसे करी है ? ढूंढियो ! जो, अन्न पाणी से ही वेयावच्च होती है ऐसे कहोगे तो देवपिंड. तो सर्वथा साधुको अकल्पनिक है और इस ठिकाने तो प्रत्यक्ष रीति,से. हरि *मूनसूत्रकारने भी-“दसविहं बहुविहं पकरेइ- दस प्रकार से तथा डा विधमे. वेयावच्छ करे, ऐसे फरमाया है। इसवास्ते वेयावच्च कुछ पन्नाशी वरण पाचादिके देने का ही नाम नहीं है, प्रत्यनीक का निवारचा भी वेयावच की।
SR No.010466
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1903
Total Pages271
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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