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________________ ८८ - सम्यक्त्वपराक्रम (४) कहा है- 'एगे आया ।' अर्थात् आत्मा एक है । वेदान्त में भी इसी बात की पुष्टि की गई है: -- वाचारम्भणो विकारं मृत्तैकवसताम् । अर्थात् घडा, सुराही आदि जो वचन बोले जाते हैं, वे मिट्टी के विकार होने के कारण ही बोले जाते हैं । वास्तव मे तो यह सब भिन्न-भिन्न बर्तन मिट्टी से ही बने हैं । इसी प्रकार सिद्ध और ससारी आदि भेद विकार के कारण हैं । शुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से तो वास्तव में सब श्रात्मा समान ही हैं । इस कथन के आधार पर हमे यह सोचना चाहिए कि हमे मिट्टी के समान ही रहना उचित है अथवा अपने जीवन को विशेष उन्नत बनाना चाहिए ? जब तक मिट्टी से घट नही बनता तब तक वह मिट्टी में तक पर धारण नही की जाती । यही नही, घडा वनने से पहले मिट्टी पैरों तले रौदी जाती है । पर जब मिट्टी से धडा बन जाता हैं तव वही मस्तक पर धारण की जाती है । इसी प्रकार आत्मा जब तक सिद्ध, बुद्ध और मुक्त नही बनता तब तक वह मसार मे ही भटकता रहता है । परन्तु जैसे मिट्टी कु भार के हाथ मे पहुचकर घट का रूपधारण करती है, फिर मस्तक पर धारण करने योग्य बन जाती है, उसी प्रकार जव श्रात्मा, परमात्मा के शरण मे जाकर एवभूत बन जाता है अर्थात् त्याग चरम सीमा पर पहुच जाता है तथा सम्पूर्णता प्राप्त करके सिद्ध, वुद्ध और मुक्त बन जाता है, तभी वह ससार की भ्रमणाओं से छुटकारा पाता है और भवभ्रमण से मुक्त होकर कृतकृत्य बन जाता है । सिद्धा
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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