SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । अड़तीसवां बोल-३७ के अतिशय गुण से सम्पन्न होकर वह जीवलोक के अग्रभाग मे जाकर परम सुख प्राप्त करता है । अर्थात् सिद्ध (समस्त कर्मों से मुक्त) हो ज ता है। व्याख्यान यहां एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है। वह यह है कि जब योग के त्याग के विषय मे विचार किया जा चुका है और वहा स्पष्ट कर दिया गया है कि योग मे मन, वचन और काय इन तीनो का समावेश होता है तो फिर यहा शरीर के प्रत्याख्यान के सम्बन्ध मे अलग प्रश्न किस उद्देश्य से किया गया है ? इस विचारणीय प्रश्न का स्पष्ट उत्तर तो कोई महापुरुष ही दे सकता है । मैं अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न करता हूँ । मेरी समझ मे, जान पडता है ज्ञानीजनो ने शरीर और काययोग में अन्तर देखा है । इस बात का प्रमाण यह है कि शास्त्र मे जहा दस प्राणो का उल्लेख किया गया है वहां इन्द्रियबल को प्राण तथा कायबल को भी प्राण माना गया है । परन्तु जब कायबल को प्राण कह दिया गया तो फिर इन्द्रियवल को अलग प्राण मानने की क्या आवश्यकता थी ? कायबल और इन्द्रियबल की गणना अलग-अलग की गई है इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानीजनो ने इन्द्रियबल मे और कायबल मे अवश्य ही कोई अन्तर देखा तथा जाना है। इन्द्रिया दो प्रकार की होती हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय होने पर भी अगर भावेन्द्रिय न हो तो
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy