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________________ ३७८-सम्यक्त्वपराक्रम (५) कठिन हो, फिर भी उसे सम्पन्न किया जाता है । इसके विपरीत जिस पर श्रद्धा नही होती वह कार्य सरल होने पर भी भार मालूम होता है । अतएव जो कार्य करना हो, उसके प्रति दृढ श्रद्धा होना अत्यावश्यक है । श्रद्धापूर्ण कार्य के लिए किसी की प्रेरणा की भी आवश्यकता नहीं रहती। उदाहरणार्थ, पुत्र का विवाह करने के लिए कौन प्रेरणा करता है ? पुत्र के विवाह सम्बन्धी कार्यो में कठिनाई पेश भाती है, परन्तु उस कार्य मे श्रद्धा होने से दूसरे की प्रेरणा के विना ही वह कठिन कार्य सरलतापूर्वक किया जाता है। जब व्यवहार में श्रद्धा की आवश्यकता है तो धर्म मे श्रद्धा की आवश्यकता क्यो न होगी? व्यावहारिक कार्य भी श्रद्धा के अभाव मे सम्पन्न नही होते तो मोक्ष सम्बन्धी कार्य विना श्रद्धा के किस प्रकार सम्पन्न हो सकते हैं ? भतएव भगवान् का कथन ध्यान में रख कर सम्यक्त्वपूर्वक मोक्ष के लिए पराक्रम करना चाहिए । अगर हम पूर्ण रूप से भगवान् की वाणी को आचरण मे नहीं ला सकते तो भी शक्ति के अनुसार तो उसे स्वीकार करना ही चाहिए । भगवान् की - सम्पूर्ण वाणी तो गणधर भी नही धारण कर सकते । वे भी भगवद्-वाणी का कुछ अंग ही ग्रहण कर पाते हैं। ऐसी स्थिति मे हमारे लिए तो यह सम्भव ही कैसे हो सकता है? अत: भगवान् को वाणी पर हमे यथ शक्ति अगल करना चाहिए। हम अधिक न कर सकें तो कम से कम उस वाणी पर श्रद्धा तो रख ही सकते हैं । आचरण समान न होने पर भी श्रद्धा तो चौथे गुणस्थान और तेरहवें गुणस्थान वाले की समान ही हो सकती है । पक्षी अपनी चोच में समुद्र नही भर सकते, मगर उस पर श्रद्धा तो सभी पक्षी रख
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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