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________________ साठवां बोल-२९७ राजा श्रणिक की निश्चल श्रद्धा मे भगवान् महावीर के धर्म के प्रति लेशमात्र भी सन्देह उत्पन्न नही हुआ । देव, राजा की धर्मश्रद्धा देखकर चकित रह गया। अन्त में उसने अपना मायाजाल समेट लिया । वह राजा के पास आया और कहने लगा--महाराज ! तुम्हारी धर्मपरीक्षा करने के लिए ही मैंने यह स्वाग रचे थे। कहने का प्राशय यह है कि व्रत-प्रत्याख्यान करने की शक्ति न होने पर भी अगर सच्ची धर्मश्रद्धा कायम रहे अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व हो तो आत्मा का कल्याण अवश्य होता है । अगर तुम अपने प्रात्मा का कल्याण करना चाहते हो तो तुम्हे भी सम्यक्त्व मे दृढ रहना चाहिए । इस विषम पचमकाल मे श्रद्धा को विचलित करने वाली अनेक बातें सुनी और देखी जाती हैं । मगर हृदय में सच्ची श्रद्धा हो तो संसार में कोई ऐसी शक्ति नही है जो तुम्हे धर्म से डिगा सके । धर्मश्रद्धा मे दृढ़ रहने से ही तुम्हारा कल्याण होगा।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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