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________________ २६४- सम्यक्त्वपराक्रम (५) कहने लगा वेश्या की बातो पर अधिक ध्यान देना ठीक नही है । अब यह बत जाने दो । रानी ने कहा- ठीक है । यह वेश्या अत्मा की दृष्टि से मेरी बहिन के समान है फिर भी इसकी बात छोड देतो हू । मगर आप भी यह बात जाने दीजिए । अच्छा जरा उन महात्मा के पास तो चलें । दोनो महात्मा के पास पहुचे | देखा. महात्मा किसी दूसरे ही वेष मे थे । यह देखकर रानो ने राजा से कहायह देखो, यह मेरे गुरु ही नही हैं। मैं तो द्रव्य और भावदोनो से जो युक्त हो उसी को अपना गुरु माननी हूं । इन महात्मा का वेष मेरे गुरु का वेष नही है जब मेरे गुरु का वेष ही नही है तो इन्हे अपना गुरु कैसे मान लू ? कुछ लोग कहते हैं कि रजोहरण और मुखपत्ती में क्या धरा है । परन्तु वास्तव में इनका अधिक महत्व है । चिह्न का कितना अधिक महत्व है ! स्टीमर, मोटर आदि पर जो चिह्न रखा जाता है उनका कितना अधिक महत्व गिना जाता है ? इसी प्रकार मुखवस्त्रिका भी जैनवम के साधुओ की निशानी है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र मे रजोहरणमुखवस्त्रिका आदि को ऋषीश्वर की ध्वजा कहा है । इमी शास्त्र मे कहा है- 'लोगे लिगपयोयण' अर्थात् लोक मे लिंग का प्रयोजन है | कहने का आशय यह है कि धर्मी द्वारा ही धर्म की पहचान होती है । रानी ने राजा से कहा -- महाराज ! धर्म के प्रति इस प्रकार छल-कपट करना छोड़ दो । आखिर रानी की बात राजा के गले उतर गई । बाद मे अनाथी
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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