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________________ अट्ठावना बोल-२७५ ।। “सतत प्रवाह के कारण ऐसा जान पड़ता है कि आज भी वही कल वाला पानी है । इसी तरह कर्म भी प्रवाहरूप में आते रहते हैं और इसी कारण उनका सयोग अनादिकालीन है । वास्तव में कर्म सदा-सर्वदा सरीखे नही रहते । जिस प्रकार नदी का पानी पलटता रहता है उसी प्रकार कर्म भी बदलते रहते हैं । कर्म प्रवाहरूप से आत्मा मे पाते ही रहते हैं, इसीलिए कर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल का माना जाता है। ऐसा समझकर आत्मा को शरीर से पृथक् करना चाहिए । काया को विषमता मे से बाहर निकालकर समताभाव मे प्रवर्तित करना ही काया का समाधारण कहलाता है। मन, वचन और काय के सम्बन्ध मे भिन्न-भिन्न रीति से और इसी क्रम के अनुसार प्रश्न करने का कारण यह भी हो सकता है कि केवली भगवान् पहले मनोयोग का निरोध करते हैं, फिर वचनयोग का निरोध करते हैं और तत्पश्चात् काययोग का निरोध करके सिद्ध, बुद्ध तथा मुक्त होकर परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं । अतएव अपन को भी काया का निरोध करने का प्रयत्न करना चाहिए । काया के निरोध से हम लोग भी सिद्ध हो सकते हैं । कहा भी है: सिद्धा जैसा जीव है, जीव सोई सिद्ध होय । कर्म-मैल का अन्तरा, बूझे विरला कोय ॥ जीव-कर्म भिन्न-भिन्न करो, मनुष्य जनम को प य । ज्ञानातम वैराग्य से, घोरज धर्म लगाय ॥ जीव और शिव अर्थात् सिद्ध मे केवल कर्म का ही अन्तर है । जीव कर्मसहित है और सिद्ध कर्मरहित है। सिद्ध
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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