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________________ चौपनवां बोल-२४६ वचन भी उसी प्रकार विकृतिजनक है जैसे शक्कर पानी मे विकृतिजनक है। फिर भी जैसे पानी मे नमक मिलाने की अपेक्षा शक्कर मिलाना शुभ माना जाता है, उसी प्रकार जब तक वचनगुप्ति का पूर्णरूप से पालन न किया जा सके तब तक असत्य, मिश्र और अशुभ मे प्रवृत्त न करते हुये शुभ मे अर्थात् सत्य मे ही प्रवृत्त करना चाहिए । इस प्रकार सत्य वचन का व्यवहार करने से भी आत्मा में निर्विकार दशा उत्पन्न हो सकती है । विकाररहित पानी किस प्रकार गुणकारी होता है, यह बात डाक्टर लोग भलीभाति जानते हैं । इसी प्रकार आत्मा जब निर्विकार होता है तो उसमे क्या विशेषता आ जाती है, यह बतलाने के लिए भगवान् ने कहा है कि जब आत्मा निर्विकारी बनता है तभी वह निज-स्वरूप मे रमण करता है । भगवान् के इस कथन से एक सूचना यह भी मिलती है कि वचनगुप्ति का पालन करके आत्मा को निज-स्वरूप मे रमण करना चाहिए । जब तक आत्म-स्वरूपरमणता प्रकट नही होती तब तक वचनगुप्ति का पालन सार्थक नही होता । साधारण रूप से तो बगुला मछलियो को पकड़ने के लिए चुपचाप रहता है, परन्तु उसको वचनगुप्ति के पीछे स्वार्थवृत्ति अथवा पर-वस्तु को अपनाने की वृत्ति होने से वह वचनगुप्ति निरर्थक हो जाती है । अतएव वचनगुप्ति अगर आत्म स्वरूपरमण मे सहायक न हो तो वह सार्थक नहीं हो सकती। वचनगुप्ति के बिना निर्विकारपन नही आ सकता और निर्विकारपन प्रकट हुए विना निज स्वरूप नही साधा जा सकता । अतएव वचन गुप्ति आवश्यक है । परन्तु वचनगुप्ति निज स्वरूप साधने के लिए ही होनी चाहिए, स्वार्थ
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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