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________________ ...' तिरेपनवां बोल-२४१ मे प्रवृत्त करना चाहिए। ऐसा न करके अगर इन्द्रियो को एकान्त निवृत्तिमय बनाया जाये तो परिणाम सुन्दर नही पा सकता . इस कारण इन्द्रियो को सर्व प्रथम आतध्यान से बाहर, करके धर्मध्यान मे प्रवृत्त करना चाहिए । प्रसग के अनुसार यहा आर्तध्यान पर विचार करना आवश्यक है । दुखपूर्ण ध्यान आतध्यान कहलाता है। शास्त्र में भी कहा है अट्टज्माणे चउविहे चउपडियारे पण्णत्ते । अर्थात-पार्तध्यान कैसा होता है और उसका स्वरूप क्या है यह नीचे की कविता में स्पष्ट रूप से समझाया गया है - इष्ट वियोग विकलता भारी, अरु अनिष्ट संयोग' दुखारी । तन की व्याधि मन हि मन भूरे अग्र सोच करि वछित पूरे। ये आरत के चारो पाये, महा मोह-रस से लिपटाये । अर्थात् किसी इष्ट वस्तु का वियोग होने पर व्याकुल होना पहला आर्तध्यान है । शास्त्र कहता है कि जिस वस्तु के वियोग से तू दुखी हो रहा है, वह वस्तु अगर वास्तव मे तेरी होती तो उसका वियोग ही क्यो होता ? जो वस्तु नष्ट हो गई है, वह वास्तव मे तेरी नही है। फिर भी उस वस्तु से तू 'दुख मानता है, इसका प्रधान कारण तेरा मिथ्या मोह है। अनिष्ट वस्तु के सयोग के कारण विकल होना दूसरा आर्तध्यान है । व्याधि उत्पन्न होने से दुखी होना तीसरा आर्तध्यान है और भविष्य सम्बन्धी चिन्ता करके दुःखी होना चौथा आर्तध्यान है । इस चौथे आर्तध्यान का रूप बतलाते हुए शास्त्रकार कहते हैं -
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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