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________________ २३२-सम्यक्त्वपराक्रम (५) होती है कि एक मतानुयायी दूसरे मत के अनुयायी से मिल भी नहीं सकता । यही नही वरन् इन सिद्धान्तो को पकडे रखकर वे प्राय महायुद्ध मचा देते हैं । ऐमा होने पर भी अगर सब मतावलम्बी गम्भीरतापूर्वक निष्पक्ष दष्टि से विचार करें तो उन्हे मालूम होगा कि धर्म का पाया सत्य पर ही टिका है और वह सत्य सब का एक है। अगर इस सत्य का सच्चा स्वरूप समझा जाये तो जो लाग धर्म के नाम पर परस्पर द्वेष रखकर कलह करते हैं, वे भी कलह और द्वेष का त्याग करके भाई-भई की तरह एक दूसरे के गले मिलेगे और प्रेमपूर्वक भेटने के लिए तैयार हो जाएंगे। प्रत्येक मनुष्य सत्य का पूजन कर सकता है । सत्य का पूजन करने मे जाति या धर्म का कोई बन्धन नही है। यही नही वरन् जो कोई भी चाहे वह किसी भी जाति का या किसी भी धर्म का हो-सत्य का आचरण करता है । वह सच्चा धर्मात्मा बन जाता है । सत्य-पूजा की सामग्री के लिये साधारणतया एक कोडी भी नही खरचनी पडती, परन्तु कभी-कभी सत्यपूजा के लिये इतना अधिक आत्मत्याग करना पडता है कि ससार का कोई भी त्याग उसकी बराबरी नही कर सकता । पूछा जा सकता है कि सत्य की पूजा किस प्रकार करनी चाहिए? इस प्रश्न का निश्चित उत्तर यही दिया जा सकता है कि- 'सत्य चर।' अर्थात् सत्य का आचरण करो। मन, वचन और काय 'से सत्य का आचरण करना ही सत्य की सच्ची पूजा है। सत्य का पूर्ण स्वरूप तो केवली भगवान् ही जानते हैं । हम लोग स्वय अपूर्ण हैं । हम पूर्ण सत्य का वर्णन
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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