SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४-सम्यक् वपराक्रम (५) दृढ विश्वास होना चाहिए कि तमेव सच्च निस्सकियं ज जिणेहि पवेइयं-एवं सहहमाणा, एवं पत्तयमाणा एवं रोयमाणा, देवाणु प्पियाणं प्राणाए श्राराहिय भवइ ? हंता गोयमा ! भवइ । अर्थात-कदाचित् कोई वान अपनी बुद्धि मे न पानी हो तो उस पर हृदय मे ऐसा दृढ विश्वास होना चाहिए कि वीतगग जिन भगवान् ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है और उसके विपय मे मुझे किसी भी प्रकार का सदेह नहीं है । मैं उनके कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखता है । गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा - इस प्रकार कह कर जो आपके वचन पर श्रद्धा रखता है वह आराधक है ? भगवान् ने उत्तर दिया--हाँ, गौतम ! वह जीव आराधक है। इस प्रकार तीर्थकर भगवान् ने जो कुछ कहा है, वह अपनी बुद्धि में न आये तो भी उनके कथन पर श्रद्धा रखनी चाहिए । श्रद्धा आत्मा को प्रकाशित करने वाली दोपिका है - आत्मा को ज्योतिर्मयी बनाने वाला दिव्य दीपक है। कहने का आशय यह है कि चित्त की शुद्धि अथवा भावविशुद्धि का महत्व केशी महाराज तथा गौतम स्वामी ने भी बतलाया है । अतएव भावसत्य द्वारा चित को शुद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए । ससार मे सयोग तो अनेक प्रकार के प्राप्त होते हैं परन्तु उन सयोगो के कारण अपने भावों मे अशुद्धता नहीं आने देना चाहिए । विपम संयोग प्राप्त होने पर भी अजना सती की भाति चित्त को शुद्ध रखना चाहिए।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy