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________________ उनचासवां बोल-१६७ कुल वाला तो विनम्र ही रहेगा। वह अभिमान नही करेगा। इससे विरुद्ध जो अपनी जाति या कुल का अभिमान करता है, समझना चाहिए कि उसकी जाति या कुल में कुछ अतर होगा । शास्त्र मे गौतम स्वामी को जातिसपन्न और कुलसम्पन्न कहा है। माता का वश जाति और पिता वश कुल कहलाता है । जाति या कुल उच्च होना तो पुण्य का फल है, फिर इनके लिये अभिमान क्यो करना चाहिए ? जातिमद, कुलमद या किसी भी प्रकार का अन्य मद करना अभिमान ही है और अभिमान पाप का कारण है । तुलसीदास ने 'पाप मूल अभिमान' कह कर अभिमान को त्याज्य गिना है । जीवन मे मार्दव गुण प्रकट होने पर जाति या कुल आदि का भी अभिमान नहीं रहने पाता । आत्मा में कोमलता प्रकट होने से अनेक गुण प्रकट होते हैं । आत्मा मे एक प्रकार की कोमलता तो स्वभावत उत्पन्न होती है और दूसरे प्रकार की कोमलता प्रयत्न द्वारा आती है। अगर प्रयत्न द्वारा आत्मा मे कोमलता न आती होती तो फिर शास्त्रकार दया के द्वारा आत्मा को कोमल बनाने का उपदेश ही क्यो देते ? मार्दव गुण प्रयत्न द्वारा भी प्रकट हो सकता है । इसी कारण गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया कि मार्दव गुण प्रकट होने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया है कि मार्दव गुण के प्रकट होने से अहकार का नाश होता है अर्थात् आठ प्रकार के मदो मे से कोई भी मद नही रह पाता। अहकारी या अभिमानी पुरुष दूसरो को हल्का मानता है । पर वास्तव मे बड़ा कौन है और छोटा कौन है, इस
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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