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________________ १३२-सम्यक्त्वपराक्रम (४) बाद ही हो सकता है । वीतराग बनने का मार्ग राग और तृष्णा का विच्छेद करने से ही सरल बनता है। तृष्णा और स्नेह का जितना-जितना विच्छेद होता जायेगा, आत्मा उतना ही उन्नत बनता जायेगा और जब तृष्णा तथा राग पूर्ण रूप से नष्ट हो जायेगा तो आत्मा वीतराग अवस्था प्राप्त कर लेगा। वीतरागता प्राप्त हो गई है, इस बात का पता केवल आध्यात्मिक भावरूप में ही नहीं चलता वरन व्यावहारिक रूप मे भी चल जाता है । जब इन्द्रियो के शब्द, रूप, रस, गध और स्पर्श इन पाचो विषयो को रूर्ण रूप से जीत लिया जाये तभी समझना चाहिए कि वीतरागता प्रकट हुई है। जब तक कोई वस्तु मनोज्ञ (पसन्द) या अमनोज्ञ (नापसद) मालूम होती है, तब तक आत्मा मे राग-द्वेष की विद्यमानता समझनी चाहिए । जब न कोई वस्तु मनोज्ञ प्रतीत हो, न अमनोज्ञ प्रतीत हो, सब वस्तुओ मे पूर्ण समभाव हो, तभी आत्मा मे वीतरागता प्रकट हुई समझना चाहिए । आत्मा मे वीतरागता प्रकट हुई है या नही इस बात की जाच करने के लिये शास्त्रकारो से यह उपाय बतलाया है। जब इन्द्रियों के विषय मनोज्ञ या अमनोज्ञ जान पडे तब समझ लेना चाहिए कि आत्मा मे अभी तक वीतरागता प्रकट नहीं हुई है और जब इन्द्रियो के विषय मनोज्ञ और अमनोज्ञ न मालूम हो, विषम नही किन्तु सम प्रतीत हो तो समझना चाहिए कि आत्मा मे वीतरागता प्रकट हो गई है। वीतरागता प्रकट हुई या नहीं, यह बात जानने के लिए शास्त्रकारो ने यह थर्मामीटर बतलाया है। इन्द्रियो के जो पाच विषय हैं, उनके सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त ऐसे तीन भेद किये गये हैं। यह तीन
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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