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________________ बयालीसवां बोल-१०५ हैं । आप क्रोध करे, यह उचित नही कहा जा सकता । इस प्रकार श्रावको के कथनमात्र से क्रोध करने वाला साधु भी कषाय से बच जाता है और साधवेष होने के कारण क्रोध, विषय, कषाय, निद्रा आदि प्रमादो से बच सकता है । सुविहित साधुवेष के कारण जीवात्मा पाप से बचता है और कर्मगुरुता के भार से हल्का बन जाता है। प्रमाद को जीतने के लिए साधुवेष धारण किया जाता है, प्रमाद को बढाने के लिए नही । सरकार सिपाहियो को शस्त्र देती है सो वैरियो को जीतने के लिए देती है, पराजित होने के लिए नहीं। इसी प्रकार सुविहित वेष भी प्रमाद को जीतने के लिए पहना जाता है। इसके अतिरिक्त साधुवेष साधुता का चिह्न है, इसलिए भी धारण किया जाता है । साधुवेप न धारण करने वाले व्यवहार मे साधु नही कहलाते । प्रकट व्यवहार मे साधु का लिंग धारण करने वाले ही साधु कहलाते हैं। उदाहरणार्थ-- कोई मनुष्य पुलिस का सिपाही हो परन्तु अगर उसने पुलिस की नियत पोशाक नहीं पहनी है तो उसे कोई पुलिस का आदमी नही मानेगा और न उसकी आज्ञा ही मानेगा । भले ही उसे खुफिया पुलिस कोई समझ ले परतु पुलिस को पोशाक के बिना उसे प्रकट रूप में पुलिस नही माना जा सकता । इसी प्रकार कोई अन्दर से भले ही साधुता के गुणो से युक्त हो किन्तु जब तक वह साधु का लिंग धारण नही करेगा तब तक उसे प्रकट मे साधु नही माना जा सकता । इसी कारण श्री उत्तराध्ययनसूत्र मे कहा गया है: लोगे लिंगपयोयणं । अर्थात् लोको में लिंग का प्रयोजन है ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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