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________________ ४८-सम्यक्त्वपराक्रम (३) व्याख्यान मन की एकाग्रता के विषय में विचार करने के लिए __ मन क्या है, यह जान लेना आवश्यक है । मन दो प्रकार के है (१) द्रव्य मन और (२) भाव मन 'मन्यते अनेन, । इति मन.' । इस व्याख्यान के अनुसार जिसके द्वारा मनन किया जाय उसे मन कहते हैं। इसके सिवाय 'मनन मनः' अर्थात् मनन करना भी मन कहलाता है । तात्पर्य यह है कि आत्मा अपने मे जिन विशेष पुद्गलो का सचय करता है और जिन पुद्गलो के समूह से आत्मा में मनन करने की शक्ति आती है, उन पुद्गलो का समूह मन कहलाता है । द्रव्य मन से द्रव्य मनन होता है और भाव मन से भाव मनन होता है। जो वस्तु देखी सुनी जाती है, उसके विपय मे मन हो किसी प्रकार का विचार करता है । उदाहरणार्थ-आँख खम्भे को देखती है, पर यदि मन न हो तो 'यह खम्भा है' यह बात जानी नही जा सकती। इस प्रकार वस्तु को देखने पर भी, अगर देखने के साथ मन न हो तो 'यह अमुक वस्तु है' इस प्रकार ज्ञान नही हो सकता । अनेक वार हम अनेक वस्तुएँ देखते है, लेकिन उस देखने के साथ अगर मन नही होता तो वह वस्तुएँ ध्यान मे नही आती अर्थात उनका ज्ञान नही होता। इस तरह जिसकी सहायता से वस्तु जानी जाय और जानी हुई वस्तु के विषय मे कल्पना करके मनन किया जा सके, उसे मन कहते हैं । द्रव्य मन और भाव मन सजी जीव को हो होता है। अमजी जीव के भी मन तो होता है, मगर उसके भाव मन
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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