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________________ बाईसवाँ बोल-२५ 'वह ऐसा है, वह वैसी है और फलां आदमी ऐसा है।' इस प्रकार की अनेक विकथाओ में लोग अपना समय नष्ट करते हैं । उन्हे यह विचार नहीं आता कि कोई पुरुष चाहे जैसा हो, कोई स्त्री कैसी भी हो, उसकी निन्दा करने से हमे क्या लाभ होगा? दूसरो की बुराई देखने और निंदा करने से मुझे क्या लाभ होगा ? मैं यही क्यो न देख कि मैं कैसा ह! मुझमे कितने विकार भरे हैं, यह मैं न देख और दूसरो के दोषो की टीका करूँ, यह कहा तक उचित है ? दूसरे के दोष न देखकर अपने ही दोषो को दूर करने मे भलाई है। बुद्धिमान पुरुष दूसरे की निन्दा मे नही पडते। वह परमात्मा का शरण लेकर अपनी बुद्धि निर्मल बनाते हैं और अपने अवगुण देखकर कहते है : है प्रभु ! मेरा ही सब दोष, थोल सिन्धु कृपालुनाथ अनाथ आरतपोष ॥है प्रभु० । ___अर्थात - प्रभो! सारा दोष मेरा ही है, और किसी का नही । इस प्रकार भक्तजन अपना ही दोष मानते है । इसी तरह तुम भी अगर परमात्मा का शरण ग्रहण करके अपनी बुद्धि निर्मल बनाओ तो तुम्हें भी यह जान पडेगा कि सारा दोष मेरा ही है । अगर तुम्हारा कोई पडौसी दुखी हो तो इसमें तुम्हारा दोष है या नही? पडौसी के दुखी होने मे तुम्हारा पाप भी कारण हो सकता है। शास्त्र के कथनानुसार इष्ट गन्ध, इष्ट रूप आदि पुण्य के प्रभाव से ही प्राप्त होने हैं । तुम इष्ट गन्ध वगैरह चाहते हो तो भाववस्तु की ओर क्यो नही देखते ? तुम यह क्यो नही
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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