SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६-सम्यक्त्वपराक्रम (३) कर्म वान्धता है। यह पाठान्तर भी ठीक प्रतीत होता है । क्योकि यहां प्रमत्तगुणस्थान का प्रश्न नही है वरन् अनुप्रेक्षा रूप अभ्यन्तर तप का ही प्रश्न है । अनुप्रेक्षा रूप अभ्यन्तर तप से शुभ प्रकृति का बन्ध होना ही सभव है, अतः यह पठान्तर भी ठीक प्रतीत होता है । इस प्रकार अनुप्रेक्षा से कर्म की अशुभ प्रकृति नष्ट होती है और अशुभ प्रकृति नष्ट होने के बाद जो शुभ प्रकृति शेष रहती है, वह ससार के बन्धन मे उस प्रकार डालने वाली नहीं है, जिस प्रकार अशुभ प्रकृति है। उदा. हरण के लिए-वजन की दष्टि से लोहे की बेडी और सोने की वेडी समान ही है, पर लोहे को बेडी सहज मे तोडी नही जा सकती और सोने की बेडी जब चाहे तभी तोडी जा सकती है । लोहे की बेडी वाला इच्छा के अनुसार किसी भी जगह नही जा सकता, पर सोने की बेडी वाला च हे जहाँ जा सकता है और सन्मान प्राप्त कर सकता है । शुभ प्रकृति और अशुभ प्रकृति में भी ऐसा ही अन्तर है । शुभ प्रकृति वाला ससार से छूटने का उपाय कर सकता है परतु अशुभ प्रकृति वाला वैसा नही कर सकता । शास्त्र के कथनानुसार शुभ प्रकृति वाला जीव इस अनादि ससार मे से निकल सकता है । जीव और ससार का सम्बन्ध कब से है, इसकी कोई आदि नही है । कुछ लोगो का कथन है कि जीव मोक्ष ता जाता है पर वहाँ मे मोह के प्रताप से वह वापिस ससार मे जन्म धारण करता है । जैसे जल निर्मल अवस्था से मलीन अवस्था में और
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy