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________________ १५८-सम्यक्त्वपराक्रम (३) उत्तर - गौतम ! विविक्त शयनासन से अर्थात स्त्री आदि के ससर्ग रहित शयन और आसन का सेवन करने से चारित्र की रक्षा होती है, चारित्रगील वनने से जीव आहार सवन्धी आसक्ति त्याग कर चारित्र मे दृढ होता है । इस प्रकार एकान्तप्रिय ओर मोक्ष भाव को प्राप्त जीवात्मा आठो प्रकार के कर्मों के वन्धन से मुक्त होता है । व्याख्यान सूत्रपाठ के सम्बन्ध मे विचार करने से पहले विविक्त शयनासन के अर्थ पर विचार कर लेना चाहिए । विविक्त शब्द का अर्थ है रहित अथवा एकान्त । साधु हो तो स्त्री. पशु और नपुसक से रहित और यदि साध्वी हो तो पुरुष, पशु आदि से रहित शयन, आसन और उपलक्षण से स्थान का सेवन करना चाहिए। शास्त्र में मुख्य रूप से पुरुषों को लक्ष्य करके उपदेश दिया गया है, और इसी कारण सूत्र पाठ मे साधु को स्त्री, - पशु और नपुसक वाले शयन, आसन तथा स्थान का सेवन न करने के लिए कहा गया है । स्त्री, पुरुष और नपु सक वाले शयन, आसन और स्थान मे साधु के ब्रह्मचर्य को भलीभाति रक्षा नही हो सकती। साधु को किस उद्देश्य से विविक्त शयन-आसन का सेवन करना चाहिए ? क्या साधु को स्त्री, पशु और नए - सक के साथ किसी किस्म का द्वेष है अथवा किसी प्रकार की अरूचि है ? अगर अरुचि के कारण ही साधु विविक्त शयन-पासन का सेवन करते हो तो अनेक गृहस्थ भी ऐसे
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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