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________________ तीसवां बोल-१४५ और स्वय श्रम करके दूसरो का हित करता है, उसे तो आप नीच समझते है और अपने आपको ऊँचा मानते हैं । तुम अपने और चमार के कार्यों की तुलना करो तो पता चलेगा कि चमार क्या बुरे कार्य करता है और तुम क्या अच्छे कार्य करते हो। अतएव परमात्मा का भजन करो । सिर्फ शरीर पर तेल-साबुन लगाने मे ही मत लगे रहो । यदि तुम शरीर पर तेल-फुलेल लगाने में ही लगे रहे और परमात्मा का भजन न किया तो कैसे कहा जायेगा कि तुम चमार से अच्छे हो ? तुम्हे यह दुर्लभ मनुष्यजन्म मिला है सो इसका सदुपयोग करो । इस मनुष्यशरीर द्वारा आत्मा परमात्मा के शरण मे जा सकता है । परमात्मा इस शरीर के लिए जितना सन्निकट है, उतना अन्य किसी भी देह के लिए सन्निकट नही है । ऐसा होने पर भी तुम मनुष्यशरीर का कैसा दुरुपयोग करते हो, इस बात का विचार करो। कहा भी है-- दया और धर्म के प्रताप कोटवाल भयो, अब नही साधु की सगति सुहात है। रात दिन करे मनसूब धन बाधवे के, आयु घटी जात जाकी चित्त नहीं चाह है। हीरन को छाडि छाडि कांचन को नग लेत, अ.ने ही हाथ देखो आप खोटा खात है। ऋषीजी कहत हुडी और की सिकारत है, अपनी हुडी के दाम रीते रह जात है। अर्थात-यह मनुष्य शरीर किसके प्रताप से मिला है? क्या कोई मनुष्य शरीर का एक भी अग बना सकता है ?
SR No.010464
Book TitleSamyaktva Parakram 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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